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Wednesday, April 17, 2024

आखिर क्यों खस्ताहाल है बिहार की स्वास्थ्य सुविधा

आबादी के हिसाब से भारत के इस तीसरे बड़े राज्य का हेल्थ इंफ्रास्ट्रक्चर वर्षों से मानकों से काफी नीचे है. समय-समय पर इसे लेकर हाय-तौबा मचती रही है किंतु परिस्थिति में कोई खास परिवर्तन नहीं आया. बिहार में सड़कों का जाल बिछ गया, बिजली की स्थिति सुधर गई, अन्य सरकारी भवनों की तरह अस्पतालों की बिल्डिगें भी बनीं, किंतु मानव संसाधन की स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ. आज भी बिहार में चिकित्सकों व पारामेडिकल स्टाफ की भारी कमी है. राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन (एनआरएचएम) की अनुशंसाओं के बावजूद इस दिशा में दृढ़ इच्छाशक्ति की कमी के कारण पर्याप्त काम नहीं हुआ. यहां तक कि कोरोना की दोनों लहरों के बीच तैयारी के लिए मिले अच्छे खासे वक्त में भी राज्य सरकार ने उस स्तर की तैयारी नहीं की, जिसकी दरकार थी.

विभागी आंकड़ों के मुताबिक प्रदेश के ग्रामीण इलाकों में चिकित्सकों के 5674, शहरी क्षेत्रों में 2874 तथा दुर्गम इलाकों में 220 पद खाली पड़े हैं. जबकि शहरी, ग्रामीण व दुर्गम इलाकों में क्रमश: 4418, 6944 व 283 कुल सृजित पद हैं वहीं पटना हाईकोर्ट को सरकार द्वारा दी गई जानकारी के अनुसार राज्य के सरकारी अस्पतालों में विभिन्न स्तर के 91921 पदों में से लगभग आधे से अधिक 46256 पद रिक्त हैं. इनमें विशेषज्ञ चिकित्सकों के चार हजार तथा सामान्य चिकित्सकों के तीन हजार से ज्यादा पद खाली पड़े हैं. डब्लूएचओ के मानकों के अनुसार प्रति एक हजार की आबादी पर एक चिकित्सक होना चाहिए, किंतु बिहार में 28 हजार से अधिक लोगों पर एक डॉक्टर है. आंकड़ों के मुताबिक प्रदेश में 1899 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र (पीएचसी) हैं. इनमें महज 439 केंद्र पर ही चार एमबीबीएस चिकित्सक तैनात हैं, जबकि तीन डॉक्टरों के साथ 41, दो के साथ 56 तथा एक चिकित्सक के साथ 1363 पीएचसी पर काम हो रहा है.

अस्पतालों का विस्तार लेकिन डॉक्टरों की कमी

जिला व अनुमंडल स्तर के कई अस्पतालों के नए भवन बनाए गए हैं तो कई का विस्तार किया गया है. किंतु कई प्राइमरी हेल्थ सेंटर पीएचसी आज जीर्ण-शीर्ण अवस्था में हैं. हाल में ही मधुबनी जिले के सकरी बाजार, मुजफ्फरपुर जिले के मुरौल व गरहां, बेगूसराय के कैथ, पूर्णिया जिले के बायसी प्रखंड के पुरानागंज, कटिहार के अझरैल, जमुई के झाझा व कर्मा गांव, किशनगंज के पोठिया व सीतामढ़ी के परिहार प्रखंड अंतर्गत भिसवा बाजार स्थित तथा बक्सर जिले के सिमरी प्रखंड के दुल्हपुर पंचायत स्थित उप स्वास्थ्य केंद्र की स्थिति मीडिया की सुर्खियां बनीं. इनमें कुछ की बिल्डिंग जीर्ण-शीर्ण अवस्था में है तो कहीं डॉक्टरों के दर्शन ही नहीं होते तो कहीं एएनएम के भरोसे ही सब कुछ है. कोविड काल में चिकित्सकों व अन्य कर्मियों की प्रतिनियुक्ति जिले के कोविड अस्पतालों में कर दिए जाने के कारण भी ऐसे कई प्राइमरी हेल्थ सेंटर तथा कम्युनिटी हेल्थ सेंटर पर महीनों से ताला लटका हुआ है. स्वास्थ्य उप केंद्रों को लेकर कोविड काल में सियासत भी खूब हुई.

प्रश्न यह उठता है कि आखिर हेल्थ वर्करों की इतनी कमी क्यों है और फिर जितनी भी संख्या में चिकित्सक तैनात हैं, क्या वे अपने नियुक्ति स्थल पर सेवा दे रहे हैं. इसका जवाब है, शायद नहीं. हेल्थ वर्करों के गायब रहने के कारण राज्य सरकार द्वारा की गई कार्रवाई में कई चिकित्सकों को बर्खास्त तक किया गया. आइएमए की बिहार शाखा के एक्टिंग प्रेसिडेंट डॉ. अजय कुमार कहते हैं, “राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन (एनआरएचएम) ने 2005 में ही ग्रामीण इलाकों में नियुक्त किए जाने वाले डॉक्टरों के लिए वेतन बढ़ाने, उनकी सेवानिवृति आयु बढ़ाने, उनकी पत्नी को उसी जगह पर योग्यतानुसार नौकरी देने, पति-पत्नी को एक जगह नियुक्त करने जैसी अनुशंसा की थी. किंतु इन पर कोई काम नहीं हुआ.”

डॉक्टरों के लिए बुनियादी सुविधाएं बढ़ाने की मांग

आइएमए 2006 से ही बराबर कहती रही है कि गांवों में तैनात किए जाने वाले चिकित्सकों व स्वास्थ्यकर्मियों की बुनियादी सुविधा बढ़ाने पर ध्यान दिया जाए. जैसे अस्पताल के नजदीक उनके आवास की व्यवस्था हो व उनके बच्चों को पढ़ने लिखने की सुविधा दी जाए. शहरी इलाके में रहने के लिए वहां मिलने वाली सुविधाएं ही बड़ा आकर्षण है. डॉ. कुमार कहते हैं, “रूरल इंसेटिव भी एप्रूव किया गया था किंतु आज तक किसी को नहीं दिया गया. ऐसा नहीं है कि चिकित्सक गांवों में जाना नहीं चाहते. अन्य परेशानियों के साथ कानून व्यवस्था भी आड़े आती है. पटना के बिहटा में सात डॉक्टरों ने रहना शुरू कर दिया था किंतु वहां एक डॉक्टर नीलम के घर पर पथराव किया गया. अब वहां कोई रहना नहीं चाहता. अनुपस्थित रहने के कारण डॉ. नीलम भी राज्य सरकार द्वारा बर्खास्त कर दी गईं.”

जब तक परिस्थितियां अनुकूल व बेहतर नहीं होंगी तब तक कोई क्यों गांवों में रहना चाहेगा. बेगूसराय के पत्रकार राजीव कुमार कहते हैं, “सुविधा की बात तो सही है, किंतु इसके साथ-साथ भ्रष्टाचार भी कहीं न कहीं इससे जुड़ा है. दरअसल गांवों के अस्पतालों में तैनात किए जाने वाले कई चिकित्सकों की दूसरे जगहों पर अच्छी प्राइवेट प्रैक्टिस होती है और वे इसका मोह नहीं छोड़ पाते है. जिस जिले में वे तैनात होते हैं वहां के विभागीय अधिकारियों की मिलीभगत से उनकी हाजिरी बनती रहती है. कागज पर सब कुछ बढ़िया दिखता है. डॉक्टरों की प्राइवेट प्रैक्टिस पर रोक लगनी ही चाहिए.”

खाली पड़े हैं प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र

डॉ. अजय कुमार के अनुसार हरेक प्राइमरी हेल्थ सेंटर को कम्युनिटी हेल्थ सेंटर में तब्दील किया जाना था. वहां सात विशेषज्ञों यथा सर्जन, फिजिशियन, एनेस्थेटिस्ट, गाइनोकोलॉजिस्ट आदि के रहने की व्यवस्था की जानी थी, लेकिन कहीं कुछ नहीं हुआ. मानव संसाधन को हर हाल में बढ़ाना होगा. आइएमए की बिहार शाखा के राज्य सचिव डॉ. सुनील कुमार कहते हैं, “ग्रामीण क्षेत्रों में अधिकांश जगहों पर दो कमरे का अस्पताल है, न डॉक्टरों के रहने की जगह है और न स्टाफ के रहने की जगह है. वहां रहने के लिए आकर्षण पैदा करना होगा. अतिरिक्त प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र (एपीएचसी) आधे से अधिक खाली हैं. प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में चार चिकित्सकों का पद है तो अधिकतर जगहों पर दो डॉक्टर हैं. स्वास्थ्य विभाग के आधे पद चाहे वे चिकित्सक के हों या फिर स्वास्थ्यकर्मियों के, खाली पड़े हुए हैं.”

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SourceDw.com

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